जाति का जहर
जी हां आज मैं आप लोगों से जिस मसले पर बात करने वाला हूं वह बहुत ही संवेदनशील मामला है जिसे बहुत वर्षों से यह देश हमारा समाज सहते आ रहा है । उसमें बदलाव करने की कवायद भी नहीं कर रहा है, क्योंकि यह बहुत आसान नहीं है। अभी भी ऐसा लगता है कि हम जिस मसले को बहुत सुलझाने की कोशिश करते हैं वह और उलझता सा चला जा रहा है , आप लोगों को पता होगा कि आमतौर पर हमारा समाज चार वर्णों में विभाजित हुआ , यह बहुत पुरातन तथ्य है। एक ब्राह्मण , एक क्षत्रिय , एक वैश्य और एक शुद्र ! यह चार वर्ण बताए गए । सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने हेतु इसे स्थापित किया गया , यह हजारों लाखों वर्षों पहले की कवायद नहीं है बल्कि महज कुछ एक 100 वर्षों पहले की ही यह पहल कही जा सकती है।
अभी इस पर बहुत ज्यादा चर्चा न करने से बेहतर होगा कि इस बात पर चर्चा किया जाए कि कालांतर में हालात कुछ यूं हुए कि ब्राह्मण ज्ञान बांटने या ज्ञान देने का, मंत्र पढ़ने का , पूजा पाठ – कर्मकांड करने कराने का ठेका ले रखा था । वहीं क्षत्रिय सब की रक्षा करने का अथवा राज करने का , शासन करने का, धन संपदा का मालिक बनने का ठेका ले रखा था । जबकि वैश्य इन सब की आवश्यकताओं की आपूर्ति किया करते थे जैसे कोई समान वस्तु का क्रय विक्रय करना इनके जिम्मे था लेकिन शुद्र क्या करते थे ?? तो शुद्र के जिम्मे यह कार्य था कि वह समाज में जो साफ सफाई हो गया, कूड़ा कचरा का निस्तारण करने वाला कार्यक्रम, चरमकारी पहले चमड़ा छीलना या जानवरों के मरे हुए शरीर को जमींदोज करना और तमाम ऐसे ही नालियों की सफाई, मल मुत्र की सफाई , तमाम तरह के ऐसे जो नीचले श्रेणी के कार्य थे उसे शुद्र के जिम्मे लगा दिया गया ।
अब यहां शुद्र कौन खुद को कहता था यह बहुत समझने वाली बात है आज का आलम यह है कि दलितों को शुद्र कहा जाने लगा एक ऐसी जाति जो दलित जाटव कहलाती है उसे शुद्र कहा जाता है और उससे ऊपर पिछड़ी जाति के लोग आने लगे । अब देखिए किस तरह से यह वर्ण जो है जातियों में तब्दीलियां लाने लगा क्योंकि ब्राह्मण में भी कई प्रकार के ब्राह्मण हो गए, क्षत्रिय में भी कई तरह के क्षत्रिय हो गए। राज पाठ तो चला गया यह बात अलग है आजादी के बाद देश में न रियासतें रही ना ही राज -;पाठ रहा लेकिन यहां आलम यह रहा कि मन के फितूर कभी कम ना हुए। जी , तो बहुत सारी बातें ऐसी हैं कि यहां एक मौका मिला पिछड़े वर्ग को , अल्पसंख्यक वर्ग को या शुद्र दलित को , जब उन्हें अपने आप में असुरक्षा की भावना और बहुत ज्यादा कहीं ना कहीं डर और नीचे होने की हीन भावना ने ग्रस्त कर लिया और इसी भावना से जन्म लिया कुछ चतुर लोगों की चतुराई का एक बड़ा ही अहम चेहरा , इसके संदर्भ में हम आगे बात करेंगे , उस चेहरे को आप लोग याद रखिएगा लेकिन अभी फिलहाल हम बात यह करना चाहते हैं कि यह छोटी जातियां , पिछड़ी या फिर अल्पसंख्यक या फिर दलित आखिर डर क्यों गए , घबरा क्यों गए जबकि इनकी संख्या इनकी तादाद बहुत बड़ी थी तो इन्हें डर और सुरक्षा की भावना ने क्यों घेर लिया ? क्या समय के साथ क्षत्रिय अपनी गरिमा भूल गए ? क्षत्रिय जिनको एक धर्म और जिम्मेदारी से उनके पूर्वजों ने उन्हें बांध रखा था कि , “तुम हमेशा दबे कुचलों की रक्षा करोगे , तुम हमेशा कमजोर की सहायता करोगे , तुम हमेशा किसी भी प्रकार का समाज में हो रहे उत्पीड़न अथवा अत्याचार का हनन करोगे , किसी की भी धन संपदा , इज्जत आबरू पर कोई गलत दृष्टि न डालोगे , ना ही डालने वाले को क्षमा करोगे ।
अपने बाप दादाओं के द्वारा विरासत में मिली इन मर्यादाओं और जिम्मेदारियों के बोझ को शायद आज का युवा वर्ग, आधुनिक पीढ़ी के लोग उठा नहीं पाये और वह अपने ही बाप दादाओं की उस सीख को भूल बैठे , एक वक्त आया जब यह लोग छोटी जातियों के इज्जत के साथ स्वयं खिलवाड़ करने लगे। इन छोटी जातियों पर अत्याचार के वह सारे आयाम तय कर दिए जो इन्हें नहीं करना चाहिए था, इन्हें जो इज्जत मिल रही थी उस इज्जत को इन्होंने समझा नहीं, उसकी गरिमा नहीं समझा और तो और ठाकुर साहब को एक बहुत बड़ी गलतफहमी हुई कि लोग इनका डर के मारे सम्मान कर रहे हैं ।
यह जो डर की वजह से लोगों से सम्मान करवाने का, लोगों से इज्जत लेने का नशा चढ़ा वह बड़ा ही घातक साबित हुआ। लोग इनको डर की वजह से सम्मान कुछ समय , कुछ हद तक तो किये लेकिन अंदर ही अंदर एक सुगबुगाहट चिंगारी बनती रही। कुछ लोगों की घुटन बढ़ने लगी , आम लोग इन लोगों से डरना छोड़कर नफरत करने लगे और यही खाई बढ़ती चली गई। फिर क्या था कुछ लोगों को अवसर मिला इन बड़े राजपूताना या क्षत्रिय परिवारों के खिलाफ छोटे व दबे कुचले शोषित वंचित वर्ग को एकजुट करके अपने साथ खड़ा करने के लिए , अभी भी कौन लोग लगे हैं उनके बारे में जिक्र आगे करूंगा ! अब हम बात करते हैं उस ब्राह्मण के ऊपर जिसकी विद्वता के लिए वह जाना जाता था , जिस ज्ञान को वह बताता था, जिस ज्ञान के प्रचार प्रसार धर्म की रक्षा कर्मकांड पूजा पाठ के लिए वह जाना जाता था उसे छोड़कर वह उसकी आड़ में शुरू किया पोंगा पंथी करने का स्वांग, ठगी करने लगा, स्वयं को धनवान बनाने के लिए सीधे-सादे लोगों को ठगने लगा, लूटने लगा और तो और उन्हें मुर्ख बनाकर उनकी इज्जत आबरू हर चीज से खिलवाड़ करने लगा।
यह भी एक वजह रही , तथा यह भी एक कारण बना कि यह छोटे लोग जो कल तक उनकी बहुत आव भगत किया करते थे, उन्हें गुरु का दर्जा दिया करते थे इनमें से कुछ शातिर और चतुर चालाक लोगों को यह अवसर मिल गया कहने के लिए कि यह ब्राह्मण हमारे लिए अभिशाप हैं , इन्हें हमें अब इज्जत नहीं देना है। यहां पर वह कहावत लागू होती है, “कि एक ही मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है।” कुछ ऐसा ही हुआ इस ब्राह्मण समाज के साथ इनमें से कुछ चतुर चालाक, लालची लोगों ने कुछ ऐसी नादानियां व गलतियां किया कि उसका खामियाजा समूचा ब्राह्मण समाज या जाति सहने के लिए विवश हो गई जैसे किसी चतुर चालाक ब्राह्मण ने कोई भी शातिराना हरकत किया हो , किसी को मुर्ख बनाया हो , किसी को लूटा हो, किसी की इज्जत आबरू के साथ खिलवाड़ किया हो तो उस आहत समाज के द्वारा या उस पीड़ित व्यक्ति विशेष के द्वारा समूचे ब्राह्मण समाज पर ही अंगुली उठा दिया गया ।
समूचे ब्राह्मणों को ही एक तीर से साध दिया गया , लांछन लगा दिया गया। यह चीज चलती रही समय के साथ , यहां कहना बहुत जरूरी है कि यह जो छोटे वर्ग के लोग थे चाहे वह पिछड़े वर्ग के लोग, अल्पसंख्यक हो या फिर दलित लोग हों , आदिवासी लोग हों ये सभी इन बड़े लोगों से डरने लगे, क्षत्रिय या राजपूत से, ब्राह्मण से अथवा वैश्य जैसे लोगों से जब यह लोग डरने लगे तो इसी डर का फायदा उठाकर उन छोटे लोगों के बीच में कुछ चतुर चालाक होशियार लोगों ने इस मौके का भी फायदा उठाया, इनको संगठित किया इन बड़े लोगों के खिलाफ उन्हें भड़काया और फिर एक बड़े राजनीतिक आयाम को पाने के लिए चल पड़े । आप लोगों को बताना बहुत जरूरी है कि यह वही लोग हैं जो आज के नेता हैं, मैं इनके ही दोहरे चरित्र वाले चेहरों की बात कर रहा था इन नेताओं ने अपने अलग-अलग दल बना दिए , अलग-अलग पार्टियां बना दीं, पार्टियों का आलम यह है कि वर्तमान परिवेश में जाति के आधार पर पार्टियां बन चुकी हैं। जी हां , मैं राजनीतिक पार्टियों की ही बात कर रहा हूं अलग-अलग जाति की अलग-अलग पार्टियां , अलग-अलग धर्म की अलग-अलग पार्टियां बन चुकी हैं।
अब आप जरा सोचिए कि जहां पर यह आलम होगा वहां पर क्या हाल होगा ? एक क्षत्रिय वर्ग के किसी व्यक्ति का कहीं शोषण हो रहा होगा तो उसमें दूसरी जाति का कोई नेता यदि उपस्थित ना हो, यदि कोई दूसरी जाति या समाज का नेता उस क्षत्रिय परिवार की मदद ना करे तो फिर सोचिए आखिर कैसे कहा जाए कि हम धर्मनिर्पेक्ष संविधान को मानते हैं या फिर हम एक ऐसे देश में रहते हैं जहां पर सभी धर्मों को, सारे पंथ को समान अधिकार है या फिर वरीयता दी जाती है। जबकि यहां आलम यह हो चुका है कि यदि किसी ब्राह्मण परिवार का हनन हो रहा है तो दूसरे समाज या जाति के लोग उस ब्राह्मण परिवार के प्रति कोई सहानुभूति नहीं रखते , उस ब्राह्मण परिवार से सिर्फ ब्राह्मण समाज के नेता ही सहानुभूति प्रकट करने के लिए प्रगट या एकजूट होते नजर आते हैं । ऐसे ही यदि किसी यादव के घर पर कोई बात हो गई है तो वहां पर यादवों की संख्या सहानुभूति प्रकट करने हेतु पहुंचती है दूसरी जाति या समाज के सज्जन वहां पर नदारत नजर आते हैं ।
ऐसे ही किसी निषाद समाज के यहां कोई घटना घट गई है तो निषादों का तांता लग जाता है, निषाद समाज के नेता वहां पर अपने समाज की हैसियत या अपने समाज की ताकत दिखाने , औरों की अवकात नापने पहुंच जाते हैं, यही आलम जाटव या फिर दलित समाज में है, दलितों में जहां पर कहीं कोई किसी प्रकार की अप्रिय घटना हो रही हो वहां पर दलितों के नेताओं का आवागमन शुरू हो जाता है अब ऐसे में कैसे न हो जाति का जहर बोने वाली बात ! कैसे जातियों में वैमनस्यता पैदा नहीं होगी ? हम जातियों में बंटते जा रहे हैं , पहले के जमाने में ऐसा नहीं होता था । पहले के जमाने में एक गांव होता था , उस गांव में जो संपन्न और रसूखदार लोग होते थे वह लोग जमींदार आदि कहलाते थे , जो लोग वहां दूसरी तमाम जातियां अपने गांव में बसाते थे।
पिछले समाज की बात करें तो एक गांव में धोबी, नाई, कुम्हार , कहांर , पासी, बढ़ई , माली , डोम, चमार, मल्लाह, यादव, कुर्मी, कोईरी, बरई, बारी, तेली और तमाम ऐसी ही जातियां हुआ करती थीं जो उस गांव के सारे कर्मकांड में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थीं, चाहे वह किसी के यहां शादी विवाह का कार्यक्रम हुआ चाहे वह किसी के यहां किसी प्रकार के कर्मकांड की आवश्यकता पड़ी वहां पर सबका अपना अपना महत्व हुआ करता था चाहे वह माली हो , चाहे वह कुंभार हो , जो भी जाति से आता हो सबका अपना वजूद होता था यहां तक की डोम और चमार जाति के महिला पुरुषों का भी उतना ही महत्व हुआ करता था जितना बड़ी जातियों या किसी भी पिछड़ी जातियों के व्यक्तियों का हुआ करता था मतलब यह कि एक ब्राह्मण परिवार भी यदि कोई उस गांव में है तो उसे भी आवश्यकता पड़ती थी धोबी की, उसे भी आवश्यकता पड़ती थी नाई की, उसे भी आवश्यकता पड़ती थी चमार या उस मेहतर की ।
नियम और कायदे कुछ खास हुआ करते थे जैसे सोचिए आपके किसी बच्चे का जन्म जब होता था तो फिर उस बच्चे की शुरुआती जो देखरेख करना होता था या उस मां की सेवा जो बच्चे को जन्म दी हुई है उसकी मालिश करना, उसकी देखभाल गांव की एक महिला करती थी , जिसे हम दाई कहते थे, जो बड़े निम्न जाति से हुआ करती थी लेकिन यह सारी परंपराएं , सारी सभ्यताएं धीरे-धीरे समय के साथ मिटती चली गईं , शादी विवाह जब होता था तो नाई और धोबी का या कुंभार का , माली का, मतलब हर किसी का अपना-अपना कार्यक्रम होता था, हर किसी का अपना-अपना रोल प्ले होता था जिसको वह सब लोग बड़ी हंसी खुशी पूरा करते थे, लेकिन यह समय के साथ बदलता सा चला गया, हम शहरीकरण की ओर बढ़ते गए या फिर हम अपनी जातियों में ही सिमटते चले गए । हमारे अपने टोले बन गए , हमारी अपनी जातियों के गैंग बन गए । हम समूह में विभाजित होते चले गए हमने कई एक नरसंहारों के संदर्भ में भी सुना जो अलग-अलग जातियों के द्वारा अलग-अलग जातियों पर किए गए अत्याचारों की श्रेणी में आता है ।
आप सब लोग भी ऐसे तमाम सच्ची घटनाओं के बारे में कभी न कभी सुने होंगे जब कोई यादव जाति के लोग किसी छोटी जाति के ऊपर हमला करते हैं , या कोई क्षत्रिय ठाकुर लोग किसी यादव जाति या मल्लाह जाति के ऊपर हमला कर दिए अथवा जब कोई मल्लाह जाति के लोग किसी दूसरी जाति पर हमला कर दिए , किसी ब्राह्मण के यहां कोई यादव हमला कर दिए। इस तरह के तमाम बातों को आप लोग सुने होंगे जानते होंगे, यहीं पर आप लोगों को बताना बहुत जरूरी है कि जातियों का जहर बहुत बड़े पैमाने पर घुलता जा रहा है । खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार राज्यों में यह जातियों का जो उन्माद है , जातियों का जो समीकरण है वह बहुत भयावह होता जा रहा है , हम जाति के खिलाफ नहीं है या फिर हम जाति को प्राथमिकता ना दिया जाए ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि जातिवाद तो खत्म होने का नाम ही नहीं लेता है और ना कभी खत्म हो पाएगा क्योंकि सभी लोग जैसे – उदाहरण में किसी बड़ी जाति के व्यक्ति हैं तो वह इसलिए उस जाति के महत्व को कम नहीं होने देना चाहते क्योंकि वह तो बड़ी जाति के हैं और कोई छोटी जाति का व्यक्ति है तो वह भी जानता है कि वह कितना भी अपना रूप रंग बदल ले , अपनी हैसियत बदल ले , अपना रहन-सहन , खान-पान , शिक्षा दीक्षा हर चीज बदल ले लेकिन बड़ी जाति के लोग उसे वह अधिकार , वह सम्मान , वह स्थान नहीं दे पाएंगे इसलिए वह भी बड़ा पशोपेश में पड़ा रहता है अब आप लोग स्वयं सोचिए कि यह खाई क्या कभी भर पाएगी ?? यह खाई क्या कोई भरने की कोशिश भी कर रहा है ?? जरा सी कोई घटना नहीं घटी कि तुरंत एक जातिगत या धार्मिक रूप में उस पूरे घटनाक्रम को रंग दिया जाता है। दूसरा जो परिवार पीड़ित है वह अलग जाति अथवा धर्म का है और…..
हमला करने वाला व्यक्ति या शोषण करने वाला परिवार अलग जाति या धर्म का है तो बस समझ लीजिए कल्याण हो गया । यहां पर आंदोलन होने शुरू हो जाएंगे जाति धर्म के लोग एकजुट होना शुरू हो जाएंगे , दूसरे जाति के लोगों पर उंगली और तोहमत लगाने का ही कार्य हो कर रह जाता तो ठीक था परन्तु एक जाति धर्म के द्वारा तो बाकायदा दूसरी जाति और धर्म से जुड़ी पूरी आबादी को ही उस आरोप प्रत्यारोप में लपेट दिया जाता है।
कुल मिलाजुला कर लोग यह नहीं सोचते हैं कि गलत कार्य करने वाले लोग हर जाति , हर धर्म में मौजूद हैं , अच्छे कार्य करने वाले लोग भी हर जाति, हर धर्म में मौजूद हैं तो यहां पर किसी एक व्यक्ति के गलती करने से सारी जाति को बदनाम करना , सारी धर्म के खिलाफ मोर्चा खोलना क्या उचित है ?? या फिर किसी एक व्यक्ति के ऊपर हुए अत्याचार को उसी की जाति के नेता के ही द्वारा उठाया जाना भी कहां तक उचित है ?? क्या उस पीड़ित परिवार के प्रति सहानुभूति प्रकट करने के मद में दूसरी जाति धर्म के लोग खड़े नहीं हो सकते ?? दूसरी जाति धर्म के नेता क्यों नहीं उस परिवार के यहां हाल-चाल लेने या उसका कुशल क्षेम पूछने पहुंचते हैं ?? यही वजह है कि यहां पर राजनीतिक पार्टियों को राजनीति करने का शुभ अवसर मिल पाता है ।
जब हम जिन पार्टियों में जो लोग होते हैं वह स्वजातीयता के आधार पर ही लगते हैं फैसला करने या फिर अपने आप को समेटने , तो फिर दूसरे लोगों को या दूसरी पार्टियों और दलों को भी यह मौका मिल ही जाता है कि वह जो पीड़ित परिवार है वह किस जाति का है! जिसके ऊपर अत्याचार हुआ है, उसके साथ खड़े होकर वोट बैंक बैंक की राजनीति कर ली जाए। जी हां , यहां पर ताजा तरीन उदाहरण देना बहुत आवश्यक है हाल फिलहाल में उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में रुद्रपुर विधानसभा हुआ करता है। जो तहसील भी है और थाना भी है। रुद्रपुर यूं तो सतासी राज के नाम से बड़ा प्रसिद्ध एक नगर हुआ करता था , यहां पर नाथबाबा दुर्गेश्वर नाथ मंदिर भी बड़ा प्रसिद्ध है। सतासी राज एक साम्राज्य हुआ करता था, अब उसके कुछ किले के अवशेष तथा जमीन आदि उसी राजघराने , राज परिवार की अभी भी बहुत हैं लेकिन आप लोगों को बताएं इसके इर्द-गिर्द बसे हुए गांव में कुछ हालात ऐसे विगत दिनों बिगड़े हुए थे कि जहां पर यह प्रमाण देना बड़ा आसान हो जाएगा , तो चलिए आप लोगों को बताएं कि यहां के रूद्रपुर से नारायनपुर रोड पर विट्ठलपुर गांव हुआ करता है वहां के रहने वाले एक दीपू निषाद नाम के युवक का 14 जून 2024 को किसी कारण से वहां के ग्रामप्रधान चन्द्रभान सिंह व उसके भाइयों से कोई वाद विवाद हो गया अतः ग्रामप्रधान व अन्य लोगों के द्वारा उस युवक को पीटा गया इसके उपरांत उसकी मृत्यु हो गई ।
अब इस बात की कितनी पुष्टि होगी या कितनी सच्चाई है यह तो जांच का विषय भी है प्रशासन इस पर जांच पड़ताल कर रहा है लेकिन हुआ कुछ ऐसा कि इस मौत के बाद एक ऐसी हवा चली जिसने एकदम जातिगत रूप ले लिया।जी हां , आपको बताएं कि पूर्वांचल के खास कर गोरखपुर और देवरिया जिले में एक क्षेत्रीय पार्टी बहुत ही सक्रिय है , जिसका नाम है निषाद पार्टी, निषाद पार्टी यूं तो निर्बल इंडियन शोषित हमारा आम दल नाम का दल है लेकिन इसे जब आप संक्षेप में करते हैं तो यह निषाद शब्द उभर कर सामने आता है , तो यहां निषाद पार्टी के मुखिया डॉक्टर संजय निषाद इसे राजनीतिक स्टंट बना दिए, राजनीति करने का एक बेहतर कार्यक्रम बना दिए , उनके सुपुत्र जो कि चौरीचौरा विधानसभा से विधायक हैं जिनका नाम है श्रवण निषाद वह आनन फानन में इस घटना के जानकारी होते ही पहुंच गए विट्ठलापुर गांव , ग्रामप्रधान चन्द्रभान सिंह चुंकि सैंथवार जाति से आते हैं , सैंथवार सामान्य श्रेणी में आने वाली एक सवर्ण जाति हुआ करती है , आप लोगों को बता दें जनरल कैटेगरी में आने वाले समाज से पिछड़ी जाति के युवक दीपू निषाद का विवाद हुआ था ।
अब इस विवाद की सच्चाई पूरी तरह से क्या है इसको अभी बहुत ज्यादाचर्चा नहीं मिल सका , तब तक विधायक श्रवण निषाद के पिता डॉ संजय निषाद भी अपनी पूरी लाव लश्कर के साथ दीपू निषाद के घर पहुंच गए , उसकी माता जी से मिले , सहानुभूति प्रकट किया और उनके पहुंचने पर उनके कार्यकर्ताओं द्वारा सीधे ग्रामप्रधान के घर पर हल्ला बोल दिया गया । ग्रामप्रधान के घर पर हल्ला बोलने के दरमियान पुलिस प्रशासन ने सारे ग्रामीणों को या फिर वहां पर आक्रोशित तमाम युवाओं को रोकने का प्रयास किया और आनन फानन में कुछ एक लोगों की गिरफ्तारियां भी हुई , कुछ लोगों को अन्य अन्य धाराओं में आरोपी भी बनाया गया ।
ग्राम प्रधान की पत्नी शालिनी सिंह ने पुलिस को तहरीर दी जिसमें उनके घर पर हमला करने का आरोप लगाया गया, बताना जरूरी है कि यहां पर मामला इस तरह जातिवादी रुप लिया कि दूसरे तमाम दलों के बहुत सारे ऊंचे पदों पर बैठे हुए या चुने गए जनप्रतिनिधियों का डेलिगेशन बनाकर पार्टियों ने यहां भेजना शुरू कर दिया, जैसे सपा के डेलिगेशन को पुलिस प्रशासन ने यूं तो यहां पहुंचने से पहले ही रोक दिया लेकिन आप लोग जरा सोचिए कि क्या यह उचित था ? यदि दीपू निषाद के साथ कोई घटना घटी भी थी तो क्यों सिर्फ निषाद पार्टी के लोग या फिर निषाद समाज के नेता ही उसका हाल खबर लेने जाएंगे ? क्यों नहीं दूसरे समाज के भी नेता यहां पर आकर खड़े हो गए ? क्यों नहीं दूसरी पार्टियों के लोग भी आकर यहां पर उसके साथ या उसकी सच्चाई को जानने की कोशिश किए ? क्यों नहीं प्रशासन ने इस मामले में समय रहते मुस्तैदी दिखाई ?? यही अवसर होता है , या यही अवसर जब दिया जाता है तो दूसरे तमाम लोग इस अवसर का लाभ उठाने लगते हैं और यही हुआ भी। विगत कुछ दिनों से आप यह भी कह सकते हैं कि डॉक्टर संजय निषाद , निषादों के दिलों दिमाग से उतरते जा रहे थे , कारण था कि वह लगातार भारतीय जनता पार्टी जैसे दल के कहीं ना कहीं एक मोहरा बनकर कार्य कर रहे थे इस 2024 के लोकसभा चुनाव में उनके सुपुत्र पुर्व सांसद इंजीनियर प्रवीण निषाद संतकबीर नगर से सांसद पद का चुनाव लड़ रहे थे जिसमें वह बुरी तरह से हार गए थे , इस हार के बाद डॉक्टर संजय निषाद को यह समझ आया कि निषादों में उनकी साख कम होती जा रही है।
निषादों में उनका वर्चस्व फीका पड़ता जा रहा है। इसलिए आनन फानन में उन्होंने इस मौके को भुनाने का प्रयास किया , यही होता रहा है , यही होता रहेगा। जब-जब नेताओं को मौका मिलेगा लोग राजनीति करेंगे, राजनीतिक रंग देंगे छोटी-छोटी घटनाओं को बड़ा कर देंगे , बेहतर तो तब हुआ होता जब दीपू निषाद यदि इस तरह से किसी भी वजह से मौत के मुंह में चला गया तो उसके परिवार को यह लोग पहुंचते और सहयोग की भावना से जितना हो सकता इसे कुछ आर्थिक मदद या फिर इसके साथ हुई घटना का सचमुच में वास्तविक कारण जानकर उसको न्याय दिलाने की कोशिश की जाती। तो यह नेतागण जब-जब मौका पाएंगे तो यह अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने से पीछे नहीं हटेंगे लोग, हर एक जाति के नेताओं का यही हाल है चाहे वह ब्राह्मण समाज का नेता हो, ब्राह्मणों के यहां कोई घटना घटेगी तो वह उसे लपक लेगा , क्षत्रिय समाज का नेता हो तो क्षत्रिय या सवर्ण परिवारों के बीच में कोई बात होगी तो उसे लपक लेगा, छोटे वर्ग और समाज के नेता या अल्पसंख्यक समाज के नेता अपने-अपने समाज के लोगों के बीच में होने वाली घटनाओं आपदाओं विपदाओं में अपनी राजनीतिक पारी खेलना शुरू कर देंगे ।
यहां पर इस चीज से उबरना है तो सिर्फ एक ही बात यहां पर सबसे बेहतर साबित होती है कि जब किसी के साथ कोई घटना घटे तो दूसरी पार्टियों , दूसरी जातियों के लोग भी उस परिवार के साथ यदि खड़े नजर आएंगे तो फिर सही मायने में न्याय हो पाएगा , इंसाफ हो पाएगा और जो गलत लोग हों , जिन लोगों ने गलत किया हो उन्हें उन्हीं के समाज के लोग भी यदि निंदा भरी नजरों से देखेंगे तब जाकर सही समन्वय बन पाएगा जैसे यदि कोई निषाद गलत कार्य किया हो तो निषाद समाज के लोग भी उसे गलत कहेंगे तब जाकर बेहतर होगा । ऐसा नहीं कि निषाद समाज का कोई अपराधी बहुत दूर्दांन्त अपराध करे और निषाद समाज के व्यक्ति या लोग उसका गुणगान करें ऐसा नहीं होना चाहिए यदि अपराध किया है तो चाहे वह किसी भी समाज जाति अथवा धर्म का हो , वह अपराधी है ऐसा सभी को कहना पड़ेगा (इस दायरे में फूलन देवी के द्वारा की गई बदले की कार्रवाई नहीं आती है, क्योंकि उस महिला या उसके गैंग ने बेहमई गांव के सिर्फ पुरूषों को अपने ऊपर हुए अत्याचार के प्रतिशोध में निशाना बनाया , किसी महिला या बच्चे को नहीं मारा, क्योंकि वह खफा थी उन मर्दों से जो उसके ऊपर हुए अत्याचार को रोक सकते थे लेकिन वे लोग उस अपराध को रोकने के बजाय उसका हिस्सा बने थे।)
तब जाकर असली जो पीड़ित परिवार होगा उसे न्याय मिल पाएगा, तब जाकर उसे सही मायने में न्यायालय में भी स्थान मिल पाएगा अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर वही बात हो जाएगी कि जो अपराधी है उनके साथ भी उनकी जाति के लोग खड़े नजर आएंगे और यही कारण शायद रहा है जब तमाम ऐसे छूट भैया नेताओं को या बड़े रसूखदार पार्टियों को भी जाति के ऊपर राजनीति करने का खूब भरपूर अवसर मिला जिससे लोग सरकार में तो इन्हीं जातियों की वजह से पहुंच गए लेकिन शासन सत्ता की मलाई काटने के बाद या सत्तासुख भोगने के बाद उन्हीं जातियों को जस का तस उनके हाल पर छोड़ दिए और सिर्फ स्वयं को राजा बनाए रखने के लिए कार्य करते रहे तथा राजसत्ता का लाभ स्वयं लेते रहे। आगे भी प्रत्येक जातियों को कुछ समझ नहीं आएगा ।
उन्हें तो थोड़ा सा संरक्षण चाहिए, हम पहले भी कबीले थे, आज पढ़े लिखे, कपड़े पहने वाले स्वार्थी कबीले बन चुके हैं, हमारे चतुर चालाक सरदारों को इससे बेहतर लापरवाही व उनपर निर्भरता से भला और क्या चाहिए! हम तो बस इस सेखी में कहीं ना कहीं भ्रमित हैं कि हमारे समाज का एक नेता है जो बड़े ओहदे पर है जब हमें कोई आपदा विपदा आएगी तो हम अपने नेता से अपनी बात कहेंगे , हमारा नेता हमारी विपदा हरने का कार्य करेगा जबकि ऐसा होता नहीं है फिर भी हम लोग उनसे उम्मीद नहीं छोड़ते और इसी उम्मीद के आधार पर उन्हें बार-बार शासन सत्ता के दहलीज पर भेजा करते हैं और वह अपना लाभ लेते रहते है ऐसे ही एक अदना सा घर, राजनीतिक घराना बन जाता है। वह परिवार राजनीतिक पारी खेलता रहता है, और इस प्रकार पुश्त दरपुश्त राजनीति में राज करने का दौर चलता रहता है। आम आदमी आपस में मरते कटते रहते हैं, घिसते – पीटते रहते हैं, उन्हें तो बस जीना है और मरना है बस इतनी सी बात होती है बाकी राजनीति का मोहरा बनकर रह जाना है !
तो आप क्या कहेंगे इस पोस्ट के बारे में ? क्या सच में जातियों में जहर नहीं खुल रहा है ? अगर घुल रहा है तो कारण कौन है ? जरूर लिखिएगा आप लोग भी कमेंट बॉक्स में जो भी आपको सही लगे, उचित लगे। कैसे बदला जा सकता है जातीय दुर्व्यवस्थाओं को या फिर जातियों में वैमनस्यता कैसे कम की जा सकती है इस पर भी आप लोगों को जो सही राय लगे वह हमें लिख भेजिए ।
जय जयकार जारी रहेगी बहुत-बहुत धन्यवाद !
बहुत-बहुत शुक्रिया !
जय हिन्द! जय भारत!!
लभ यू इंडिया !!!