शाम ढलने को मचल रही थी, पूरे दिन आफिस के काम करते करते राजेश को थोड़ी थकान सी लग रही थी और शायद भूख भी, तभी उसे याद आया कि “पाटिल वड़ा पाव वाला” गरमा गरम वड़े निकाल रहा होगा। “वैसे भी अब चाय पीने तो जाना ही था, साथ में ताजे स्नैक्स का भी लुत्फ लिया जाए राज ।” यह बात अपनी चेयर को पीछे खसकाते हुए राजेश ने अपने साथ की टेबल पर काम कर रहे राज से कहा और दोनों ही अपनी कमर और पीठ सीधी करते बस उठ खड़े हुए। थोड़ी ही देर में वे दोनों “पाटिल वड़ा पाव” के बागड़े के सामने खड़े सच में कड़ाही में उछलते कूदते, मारे खुशी के अपनी खुश्बू फैलाते वड़ो को निहार कर ललचाए जा रहे थे।

उनके अलावा भी कई लोग खाने वालों की कतार में लग गये थे। वैसे मुंबई महानगर के लोगों की ये आपसी सहमती भी देखते ही बनती है, कुछ भी करना हो, शौचालय से लेकर सचिवालय तक तपाक से लाईन में खड़े हो जाओ। जो ज्यादा चालाकी किया समझो वो सबसे पीछे जगह पायेगा, जागरूकता इतनी है। थोड़ी देर में राजेश और राज दोनों ही फूंक फूंक कर, वड़ा पाव खाये जा रहे थे तभी वहां एक बहुत ही मैला कुचैला कपड़े पहने एक महिला आकर थोड़ी दूर पर खड़ी हो इशारे से गिड़गिड़ाने लगी। वहां खड़े लगभग सभी ने उससे नजरें बचायी और अपने निवालों को जल्द निपटा कर वहां से निकलने की होड़ सी मच गई। राजेश भी वैसा ही कुछ करना चाह तो रहा था लेकिन न जाने क्यों वह फिर उसकी ओर देखा, इस बार उसकी नजर उस भिखारिन महिला पर नहीं थी बल्कि उसकी गोद में एक बहुत ही गंदे लिबास में लिपटी, डेढ़ दो साल की एक बच्ची पर पड़ी जो इधर उधर देख कर रूआंसा हुए जा रही थी।

कभी कभी जोर से रो भी रही थी यह देख राजेश को ही नहीं कई और लोगों को भी शायद तकलीफ हुई होगी लेकिन कौन इस पचड़े में पड़े यह सोच ज्यादातर लोग निकल भी लिये, जाते हुए कुछ एक लोगों ने वह पांच का सिक्का उसकी हथेली पर रख दिया जो वड़ा पाव के पन्द्रह रूपए कटवाने के बाद बीस की नोट में से बचे थे। राजेश ने गौर किया कि उन सिक्कों को जिस पोटली में उस महिला ने रखा वह उसके कमर के एक बगल कुछ कुछ अतिरिक्त भार बढ़ा रही थी। इससे यह बात तो स्पष्ट हो गई थी कि उसने आज की आमदनी ठीक ठाक कर लिया था फिर भी राजेश उसके लिए कुछ करना चाह रहा था इसलिए वह उसे देख भी रहा था, ” उस महिला ने ऐसा सोचा और उससे एक वड़ा पाव दिलाने का इशारा किया ।”
राज को यह प्रस्ताव रास नहीं आया उसने कहा, “छोड़ यार ! चल चाय पीते हैं।” लेकिन राजेश ने मन बना लिया था, उसने एक वड़ा पाव पाटिल दादा से मांगा और उस महिला को थमा दिया। वह तुरंत खाई नहीं , बल्कि उसको भी उसने रख लिया और आगे बढ़ गई। अब राजेश चाय पीते पीते जो सोच रहा था वह बात वाकई सोचने योग्य थी।
वह सोच रहा था कि इस पूरे प्रकरण में उस बच्ची का क्या दोष है ? क्या सच में यह भाग्य का ही खेल नहीं है, जन्मों का रहस्य नहीं है?? कि उस भीख मांगने वाली महिला की कोख से वह जो बच्ची जन्मी है वही उसके भीख मांगने का साधन बन गई। एक ओर जहां बहुत से महिला पुरुष अपने बच्चों को खुशियां और सुविधाएं देने के लिए खुद को कहां कहां , किन परिस्थितियों में खपा रहे हैं, कष्ट दे रहे हैं, संघर्ष कर रहे हैं, मेहनत कर रहे हैं लेकिन अपने बच्चों को किसी तरह की तकलीफ़ ना हो ये सोच रहे हैं। उनके परवरिश से लेकर उनकी पढ़ाई तक के लिए खासी मशक्कतें उठा रहे हैं । वहीं पर यह भी एक मां ही तो है जिसकी बेटी बनकर जन्म लेने में उस बच्ची को ना तो कोई इच्छा रही होगी, ना तो कोई हाथ ही रहा होगा उसका, इस पूरे प्रोसेस में या फिर उसका कोई दोष तो नहीं इस पूरी जन्म प्रक्रिया में, फिर भी वह ये कष्ट क्यों भोग रही है ??
यह सोचते हुए चाय कब की खत्म हो चुकी थी, लेकिन वह महिला राजेश की आंखों से दूर न जा सकी, आज वह जानना चाह रहा था कि क्या वह सही सोच रहा है ? राज को उसने वापिस भेज दिया, “थोड़ी देर बाद आता हूं।” कहकर उस महिला के पीछे चल पड़ा। शाम अब ढ़ल ही गई थी सो कुछ दूरी पर ही उस महिला का डेरा भी आ गया जहां उसके कुनबे के कुछ लोग वहां पहले से मौजूद थे, सड़क के किनारे अपने अस्थाई ठिकाने बनाए उस महिला को यह बिल्कुल भी ध्यान न था कि कोई दूर से उसे निहार रहा है। सबसे पहले उस मैली कुचैली महिला ने अपनी मच्छरदानी को हटाते हुए एक दूबले पतले आदमी के हाथों में उस छोटी सी बच्ची को सौंप दिया , वह फिर रोने लगी, उस पिता समान पियक्कड़ आदमी ने उसे पीट दिया वह थोड़ी सहमी सी चुप हो गई। महिला ने अपने साथ लाये वड़ा पाव आदि को खाना शुरू कर दिया, उसका पति भी उसमें से कुछ चखने लगा। दूर खड़ा राजेश सब देखे जा रहा था, उसने कमर में रखी पैसों की पोटली भी निकाली, अब दोनों मिलकर सिक्के गिन रहे थे, वो चाहें जितने भी रहे हों पर इतने जरूर थे कि ये लोग ठीक से अपना कल का दिन काट सकें, लेकिन अफसोस है कि इन लोगों ने खुद को दीन हीन, कूड़े कचरे जैसा या बिमार बनाकर ही पैसे या मदद मांगने का तरकीब तय कर रखा है।


मान लिया कि ये लोग उम्र में बड़े हैं, इनको गंदे लिबास, या मैले कुचैले तरीके से देखकर लोग इनपर दया करेंगे लेकिन क्या छोटे बच्चों या बच्चियों को देखकर, इनके प्रति वो दया करने की प्रबल भावना नफरत में नहीं बदल सकती है ? वह गरीब दीन हीन महिला अपने अभाग्य का ठिकड़ा उस बच्ची के माथे क्यों फोड़ रही थी समझ के परे था | क्या वह बच्ची उस घुटन भरे माहौल में यदि रहना या जीना ना चाहे तो इस परिपाटी को बदलने के लिए आज कुछ कर सकती है क्या ?? बिल्कुल भी नहीं ! क्योंकि वह आज अबोध है और जब तक इस पूरी परिस्थिति को समझने के योग्य होगी तब तक वह खुद भी किसी बच्चे की मां बन चुकी होगी । साथ ही, वह सब कुछ अपने बच्चों के साथ दोहरा रही होगी, जिसके जिम्मेदार वह बच्चे तो बिल्कुल ही नहीं होंगे।
अब राजेश यही सोच रहा था कि क्या ये सच ही जन्मों का रहस्य है ? यही बच्ची अगर किसी अच्छे और सम्पन्न घर परिवार में जन्म ली होती तो उसका पालन किसी और तरीके से नहीं होता, लेकिन इन खानाबदोश जीवन को जीने वाले लोगों के घर जन्म लेकर इन्हें कितनी यातना सहनी पड़ रही है ?? जिसमें उन्हें खुश भी देखा जा सकता है, क्योंकि उनको अच्छे बुरे माहौल का पता अभी कहां चलेगा ?

यक्ष प्रश्न :- यह जन्मों का रहस्य नहीं तो और क्या है ?

वह छोटी सी बच्ची अब रोते रोते सो गई थी, हां उसे सुबह जल्दी उठकर अपनी मां के पीठ या छाती पर लदकर फिर से काम पर जो जाना था , धूप में जलना था, दूसरे बच्चों को कुछ खाते पीते देख दूर से ललचाना था, रोना और फिर वापिस आकर रोते रोते सो जाना था, बड़े होने तक अगर जिन्दा रही तो फिर किसी अपने ही जैसे गंदे बच्चे के साथ गंदी हरकतें करते हुए किसी और गंदे बच्चे को जन्म दे देना था और फिर एक दिन इस कमाते, खाते, बिमार पड़ते, गिरते पड़ते, इस गंदे शरीर को यहीं छोड़ कर हमेशा के लिए चले जाना जो है !
राजेश अब आफिस में था, अपने बैग में अपना लंच बाक्स रख रहा था और घर जाने की तैयारी में था। वह घर पे अपनी दो साल की बच्ची के लिए आज क्या लेकर जाये यह सोच रहा था। पत्नी को फोन कर के पूछ रहा था | यह उसकी बेटी का भाग्य था या राजेश का अपना सौभाग्य , इस उधेड़बुन में वह कब का घर पहुंच गया था, पता ही नहीं चला।

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