एक होटल था जिसका नाम था, “ब्रह्मभोज” उसपर सिर्फ पूड़ी सब्जी और दही चूड़ा ही मिलता था। उस होटल पर भीड़ नहीं लगती थी, दिन भर एक बुजुर्ग वहां खाने की सामग्री बनावा कर, ग्राहकों का इंतजार करते थे। लेकिन कोई कोई ही वहां कभी कभार आता था। एक दिन एक जोड़ा वहां आया तो अंकल ने उन्हें बिठाया, खाने को पूछा। थोड़ी ही देर में बहुत से लोग ग्राहक के रूप में आ गए। अंकल अवाक हो गये। उनके रसोईये को पहले दिन भरपूर काम मिला था। अब उन्होंने उस जोड़े को बहुत सम्मान दिया। उन्होंने अपने होटल के लिए उन्हें बहुत लकी बताया साथ ही रोज आने का आग्रह किया, साथ ही एक निवेदन और किया कि वह उनसे पैसे नहीं लेंगे लेकिन वे सिर्फ एक बार जरूर उनके होटल पर कुछ तो खाने या नाम मात्र के लिए ही आ जाएं। क्या हुआ आगे, यह जानने के लिए पूरी कहानी पढ़िए।

शुरू में महावीर प्रसाद एक बहुत ही गरीब किसान थे, उनके गांव में लोगों के पास खेती के अलावा कोई दूसरा काम नहीं था दरअसल वहां पर लोग बहुत गरीब थे साथ ही अनपढ़ भी। बहुत कम लोग थे जो इस गांव से शहरों में कमाने के लिए गये थे, लेकिन जो गये वो कभी लौट कर वापिस अपने गांव नहीं आये , शहर के ही होकर रह गए। महावीर प्रसाद भी उनमें से एक थे जो शहर में कमाने गये थे लेकिन वह अपने गांव को कभी भूल नहीं पाए। चूंकि उनके बच्चे और परिवार के लोग शहर में ही रच बस गये थे इसलिए वे कभी भी इस बात के लिए मतलब गांव आने के लिए राजी नहीं होते थे । वर्षों बाद महावीर प्रसाद जब अपने जिम्मेदारियों से निवृत्त हो गये तो उनको अपने गांव की याद खूब आने लगी, गांव की मिट्टी से उनकी ढ़ेर सारी यादें जुड़ी थीं। वह वापिस अपने गांव चले आये जबकि उनकी पत्नी भी अपने बच्चों के साथ शहर में ही रह गयीं , अपने पति के साथ गांव नहीं आयीं। महावीर प्रसाद बहुत सूझ बूझ वाले कर्मठी व्यक्ति थे, वह बहुत गरीबी से उठ कर खड़े हुए थे, वह जानते थे कि जब तक हाथ में थोड़े बहुत पैसे हों तब तक ही स्वयं को सम्भाल लेना चाहिए वरना बाद में बहुत परेशानी हो सकती है।

महावीर प्रसाद जी, चाहते थे कोई ऐसा कार्य करना जिससे उनके गांव के कुछ लोगों को रोजगार मिल जाए इसलिए उन्होंने गांव के चौराहे से गुजरने वाली मुख्य सड़क पर एक होटल खोलने का निर्णय लिया जबकि उनका बेटा शहर में बहुत अच्छा खासा पैसा कमाता था, वह अपने पिता को सारी सुख सुविधाएं देना चाहता था लेकिन महावीर प्रसाद बहुत स्वाभिमानी व्यक्ति थे वह अपने बेटे बहू और उनके बच्चों पर अपने बुढ़ापे को बोझ नहीं बनने देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने यह निर्णय लिया था कि उनके जब तक हाथ पैर सही सलामत हैं तब तक काम किया जाए और पैसे भी कमाए जाएं।

महावीर प्रसाद ने जो होटल खोला वह एक अनोखे सोच पर आधारित था, जिसका नाम उन्होंने रखा था, “ब्रह्मभोज” यह एक ऐसा शब्द था जिसका अर्थ गंवई क्षेत्रों में लोग मृत्यु भोज से लगाते थे। फिर भी महावीर प्रसाद यही नाम रखे अपने होटल का जहां पर उन्होंने अपने गांव के कुछ लड़कों को काम पर रखा, होटल की दीवारों पर लिखा था, “राम नाम सत्य है!” यह सब देखकर कुछ लोगों को अजीब लगता था लेकिन कुछ तो खास था ही इस सोच में। उन्होंने

कुछ महिलाओं को भी काम पर रख दिया जो अलग अलग कार्य करना जानती थीं। अब यह होटल खुले एक महीने हो गए थे लेकिन अभी लोगों का आवागमन ठीक से शुरू नहीं हुआ था। एक रोज जब महावीर प्रसाद जी होटल पर उदास मन से बैठे यह सोच रहे थे कि होटल पर कई लोग काम कर रहे हैं लेकिन ऐसे ही यदि यह चलने नहीं पाया तो सबको यह काम छोड़ना पड़ेगा, होटल बंद करना पड़ेगा।
तभी वहां पर एक नवविवाहित जोड़ा आया, गाड़ी से उतकर उन्होंने ब्रह्मभोज के बैनर की ओर देखा फिर बहुत हंसी खुशी होटल में प्रवेश कर गये। यह शहर से आये हुए पति पत्नी जान पड़ते थे। महावीर प्रसाद ने बड़े ही सम्मान सहित उन्हें बिठाया, पानी मंगवाया, और उनके पसन्द के अनुसार पूड़ी और सब्जी के पत्तल लगवा दिए। अभी वे लोग, पूड़ी सब्जी खाना शुरू भी नहीं किये थे कि होटल में देखते ही देखते ढ़ेर सारे ग्राहक आ गये। सब लोगों ने पूड़ी – सब्जी और दही – चूड़ा का आर्डर कर दिया।

पहला दिन था जब इतने ग्राहक खाना खाने इस होटल ब्रह्मभोज में आये थे, अंकल के खुशी का ठिकाना नहीं था, होटल में काम करने वाले सभी लोग बहुत खुश थे, अंकल उस नवदम्पत्ति को बार – बार देख कर खुश हो रहे थे, जिनका विवाह अभी जल्दी ही हुआ था शायद। उनके होटल के लिए वे दोनों बहुत भाग्यशाली लग रहे थे, वह नवबधू साक्षात उन्हें लक्ष्मी लग रही थी। महावीर प्रसाद जी के आग्रह पर उन्होंने दही चूड़ा और चीनी भी चखा था। जब वह जाने लगे तो अंकल ने उनसे पैसे लेने से मना कर दिया, उल्टा उनसे आग्रह करने लगे कि आप प्रतिदिन यहां एक बार परिवार सहित आ जाते तो बहुत अच्छा हो जाता। उन्होंने उनको अपने लिए बहुत लकी बताया, वे लोग पैसे देने की बहुत कोशिश किए लेकिन अंकल ने कल दीजियेगा कहकर टाल दिया। वह युवक जिसका नाम विजय था और उसकी पत्नी का नाम लक्ष्मी था, उसे बहुत खुशी हुई अंकल के व्यौहार पर।

वह बहुत खुश और प्रभावित होकर बहुत कुछ सोचते हुए अपनी पत्नी के साथ अपने घर लौटा था। दरअसल विजय शहर में रहता था, वह छुट्टियों में गांव आया हुआ था उसके एक दोस्त ने कहा था कि वह भी कभी इस रास्ते से गुजरा था तो ब्रह्मभोज होटल में बहुत अच्छा सात्विक खाना खाया था। वाकई विजय को और उसकी बीवी को बहुत अच्छा लगा था उस होटल का खाना, उससे भी अच्छा लगा उस अंकल का व्यवहार। अब क्या था अंकल के आग्रह को वह कैसे टाले , बड़ी दुविधा में पड़ गया। दूसरे दिन सुबह वह सोच ही रहा था कि क्या करे, जाए या नहीं तभी उसके दोस्त सौरभ का शहर से फोन आ गया और उसने उस होटल के खाने के बारे में पूछा, विजय ने सिलसिले वार उसे सारी बात बताई। उसने उस बुजुर्ग अंकल के जज्बे के बारे में सौरभ को बताया कि कैसे वह बूढ़ा आदमी अपने घर परिवार की जिम्मेदारियों से निवृत्त होकर अपने गांव के सीधे सादे लोगों के बारे में सोच रहे हैं और उन्हें स्वरोजगार देना चाहते हैं! इस पर सौरभ ने भी अंकल को सहयोग करने की बात भावुक होते हुए कहा।

इसलिए विजय ने भी सोच लिया कि जब तक वो यहां पर छुट्टियों में है , प्रतिदिन उनके होटल पर जाएगा। उसने अपने उस दोस्त सौरभ को यह भी बताया कि सच में उस होटल पर वह बुजुर्ग अंकल बहुत मेहनत कर रहे हैं, उनकी सोच बहुत महान है। साथ ही साथ विजय ने अपने दोस्त सौरभ को यह भी बताया कि उनका एक बेटा भी है, जो शहर में रहता है और अच्छा कारोबार करता है, वह चाहता है कि उसके पिता हमेशा उसके साथ रहें लेकिन वे उसपर किसी भी तरह से बोझ नहीं बनना चाहते हैं। विजय, ने यह भी कहा सौरभ से कि वह उनकी मदद करना चाहता है लेकिन वे बहुत स्वाभिमानी व्यक्ति हैं किसी भी तरह से सीधे सहयोग नहीं ले सकते। उसकी बातें सुनकर उसके दोस्त सौरभ की आंख भर आई, उसने सिर्फ इतना कहकर फोन रख दिया कि, “हां यार ! बहुत अलग हैं वो, मैं भी उनको जानता हूं।”
विजय ने सौरभ की इस बात पर कुछ खास गौर नहीं किया और दूसरे दिन भी उनके होटल पर पहुंच गया अपनी पत्नी लक्ष्मी को लिवा कर । आज भी जब वह होटल पर पहुंचा तो काफी सन्नाटा था लेकिन जैसे ही ये दोनों पहुंचे कि देखते ही देखते उनके होटल पर खाने वालों की भीड़ लग गयी। जी हां, उनका सारा खाना बिक गया गया।

अंकल की आस्था इस जोड़े पर और प्रबल हो गयी, वह लक्ष्मी को अपने होटल के लिए भी लक्ष्मी मानने लगे। यह सिलसिला अब तो रोज का हो गया। धीरे-धीरे इस तरह होटल ब्रह्मभोज बहुत चर्चित हो गया। वहां पर बहुत से फूडी व्लागर आकर विडियो बनाने लगे और इस उम्र में अंकल के इस अद्भुत स्टार्टअप को सारी दुनियां के सामने पहुंचाने लगे। यूट्यूब पर अंकल का होटल ट्रेंड करने लगा , अब तो यहां आने और खाने वालों की भीड़ खत्म ही नहीं होती थी। महावीर प्रसाद जी के गांव के बहुत से लोगों को यहां पर काम मिल गया। कुछ दिन बाद विजय और लक्ष्मी शहर वापिस चले गये लेकिन अंकल तब तक बहुत वायरल हो चुके थे ।

उनका होटल खूब चलने लगा था, विजय अपनी पत्नी से इस बात को लेकर कई बार चर्चा भी करता था कि कितनी अजीब बात थी ना कि जब हम लोग जाते थे ब्रह्मभोज होटल पर तभी बहुत से ग्राहक न जाने कहां – कहां से वहां खाना खाने आ जाते थे ! कुछ दिन बाद जब शहर में एक रोज अपने दोस्त सौरभ से मिलने विजय और उसकी बीवी उसके घर गये, वे लोग अभी चाय – पानी कर ही रहे थे कि विजय सौरभ की पत्नी ने उसे घर में बुलाया , वह अपनी मोबाइल चाय की टेबल पर छोड़कर घर के भीतर चला गया। फिर पत्नी के कहे अनुसार कोई सामान लाने के लिए निकल पड़ा, उसे जल्दी – जल्दी में बाहर जाना पड़ा, इसलिए वह अपनी मोबाइल टेबल पर ही भूल गया। इतने में किसी का फोन आया उस मोबाइल पर, एक बार फोन की पूरी घंटी बजकर कट गई, विजय ने सौरभ की बीवी को आवाज दिया लेकिन वह किचन में व्यस्त होने की वजह से सुन नहीं सकी शायद तब तक दूसरी बार मोबाइल की घंटी बजने लगी।

अब विजय ने सोचा की फोन उठाकर बता दिया जाए कि सौरभ बाहर गया है अभी आयेगा तो बात करने को बोलते हैं। यह सोचते हुए विजय ने जैसे ही फोन उठाया सामने से आवाज आई, “भईया जी, आपने जैसा कहा था बिल्कुल वैसे ही हम सबने मिलकर ब्रह्मभोज को सबसे चर्चित होटल बना दिया है। बाकी का पैसा आप भेज दीजिए, कम पड़ गया है।” तभी सौरभ की पत्नी अंदर से गरमा गरम पकौड़े लेकर आ गई, विजय ने फोन उसकी ओर बढ़ा दिया। सौरभ की पत्नी रूबी ने फोन लेकर बोला, भईया थोड़ी देर में बात कराते हैं अभी वो बाहर गये हैं। विजय पूरी बात को समझ गया था फिर भी फोन रखते हुए रूबी ने कहा, “लीजिए भाई साहब खाईये आप लोग।” तभी सौरभ भी कुछ सामान की थैली लिए आ गया, उसको देखकर पत्नी रूबी बोली, “देखो पापा जी के होटल को चलाने वालों का फोन आया था, बात कर लो।” सौरभ विजय की ओर देखकर रूबी को चुप रहने का इशारा किया और फोन लेकर बोला, “फोन भूलकर चला गया था मैं…अभी बात कर लेते हैं।” सब फिर चाय नाश्ता किए और शाम होते होते विजय अपनी अपनी पत्नी लक्ष्मी को लेकर अपने घर वापिस चला आया।

       विजय अब अपने घर पर बिस्तर पर सोने जा चुका था लेकिन नींद उसकी आंखों से गायब थी। रात काफी हो गई थी, उसकी पत्नी सो गई थी, वह जागे हुए सोच रहा था कि मैं अपनी पत्नी के उस भ्रम को कभी नहीं तोड़ूंगा जो वह अंकल उसे अपने "होटल की लक्ष्मी" बोले थे! 

    जबकि असली हीरो तो उनका अपना बेटा है जिसने बिना उन्हें पता चले हुए, बिना कोई वाहवाही बटोरते हुए, कितनी युक्तियां लगाकर बड़े ही खामोशी से अपने पिता के लिए क्या कुछ नहीं किया है, जो एक पिता अपने बच्चों के लिए अक्सर करता है।, आज वो किया है सौरभ ने अपने पापा के लिए।

“बेटा हो तो ऐसा हो!”

यह कहानी आप सबको कैसी लगी ?
जरूर बताएं।
जय जयकार जारी रहेगी !
जय हिन्द ! जय भारत !!
लभ यू इंडिया !!!
कहानीकार – अजय साहनी “स्टार” मुंबई ,
मोबाइल नम्बर – 9224580798

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